दीपक कुमार तिवारी
पटना। स्थिति अनुकूल न हो तो ऊंट पर बैठे व्यक्ति को भी कुत्ता काट लेता है। समय मेहरबान तो गधा पहलवान। बनला के सभे सार, बिगड़नला के बहनोई केहू बने के तैयार ना। जतो दोष, नंदो घोष। हिन्दी, भोजपुरी और बांग्ला की इन लोकोक्तियों का सच अब साफ-साफ दिखने लगा है। भाजपा लोकसभा में 242 सीटों पर आ गई तो अब सभी उसमें खोट खोज रहे हैं। निशाने पर नरेंद्र मोदी हैं।
विश्लेषण तो ऐसे हो रहे हैं, जैसे सबको मोदी की गति का पता था।ऐसा सोचने वाले तरह-तरह के तर्क-तथ्य परोस रहे हैं। लाख कोशिशों के बावजूद सामने दिख रही सत्ता तक न पहुंचने का गम उन पर ऐसा तारी है कि वे नरेंद्र मोदी से भाजपा को पूर्ण बहुमत न मिल पाने पर नैतिक आधार पर इस्तीफे की मांग कर रहे हैं। इसमें वे तो और उछल-कूद रहे हैं, जिन्होंने तीन प्रयास में भी लोकसभा में तीन अंकों में सीटें हासिल नहीं कीं।
दो बार तो नेता प्रतिपक्ष बनने की भी अर्हता पूरी नहीं कर पाए। कुछ तो ऐसे भी हैं, जिनकी पार्टी पिछली बार लोकसभा का मुंह भी नहीं दिख पाई। देश में ही एक ऐसी सीएम हैं, जिन्होंने भाजपा को एनडीए में अकेले बहुमत से अधिक सीटों के बावजूद नरेंद्र मोदी से पंगा लेना अपनी आदत ही बना ली।
यूपी में समाजवादी पार्टी इस बार भाजपा पर भारी पड़ गई है। हालांकि उसे पिछले दो चुनावों में जनता ने धरती धरा दी थी। तब अखिलेश को यह एहसास नहीं हुआ कि जनता ने उनकी यह गति क्यों बना दी। वे कह रहे हैं कि जनता ने भाजपा का अहंकार तोड़ दिया। अहंकार अगर भाजपा का जनता ने तोड़ा है तो आपका भी चार चुनावों में जनता ने गुरूर तोड़ा था। 2014 व 2019 के लोकसभा चुनाव में और 2017 व 2022 के विधानसभा चुनाव में आपकी पार्टी ताकत कहां फुर्र हो गई थी !
राहुल गांधी, ममता बनर्जी और तेजस्वी यादव जैसे नेता नरेंद्र मोदी को नैतिक आधार पर इस्तीफा देने की मांग कर रहे हैं। तर्क भी इनके अजीब हैं। मोदी भाजपा को बहुमत नहीं दिला सके, इसलिए इस्तीफा दे दें। अरे भाई, थोड़ा अतीत में भी झांक लेते। वैसे वर्तमान अब भी भयावह है। 1977 में जनता पार्टी से हारी कांग्रेस ने क्या इंदिरा गांधी के खिलाफ कोई कार्रवाई की थी !
क्या इंदिरा ने आलाकमान का पद नैतिक आधार पर त्याग दिया था ! क्या दो लोकसभा चुनावों में डबल डिजिट में सिमटी कांग्रेस ने राहुल गांधी के नेतृत्व को नैतिक आधार पर अस्वीकार किया ! भाजपा ने तो पूरी नैतिकता से एनडीए के नेतृत्व में चुनाव लड़ा। कुछ पुराने साथी हटे तो कई नए जोड़े भी। एनडीए सरकार में फिलवक्त महत्वपूर्ण पार्टियां बनीं जेडीयू और टीडीपी को भाजपा ने ही जोड़ा।
इस बार खराब हाल में भी भाजपा को इतनी सीटें तो आई ही हैं, जितनी तीन लोकसभा चुनावों में देश की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी का दावा करने वाली कांग्रेस नहीं ला पाई। 2014 में कांग्रेस को 44 तो 2019 में 52 सीटें मिली थीं। इस बार 99 सीटें मिली हैं। यानी तीन चुनावों में कांग्रेस को 195 सीटें मिलीं तो भाजपा ने अकेले उससे दोगुनी से अधिक सीटें लाकर इस बार भी सरकार बना ली है।
26 दलों के गठबंधन के तहत ही कांग्रेस ने चुनाव लड़ा तो भाजपा ने भी एक से लेकर 16 सांसद जीतने वाली 14 पार्टियों के साथ गठबंधन बना कर चुनाव लड़ा। भाजपा गठबंधन के पास 292 सांसद हैं तो कांग्रेस गठबंधन के पास जोड़-चेत कर 232 हैं। अचरज तो इस बात पर हो रहा है ऊंची उम्र के राजनीतिज्ञ मल्लिकार्जुन खरगे साहब भी कह रहे कि मोदी के पास जनादेश नहीं। उन्हें इस बात की चिंता खाए जा रही है कि सरकार कभी भी गिर सकती है।
हालांकि खैरख्वाह बन कर वे मोदी को शुभकामना भी दे रहे हैं, यह कहते हुए- ‘हम चाहते हैं सरकार चलती रहे।‘ साथ ही कटाक्ष करने से भी बाज नहीं आते, यह कह कर- ‘अच्छा न चलने देना प्रधानमंत्री की आदत है।‘
खैर, जिसे जो कहना है, कह ले। कमजोर होने पर तो लोग कहेंगे ही। लोगों ने मोदी के नाम पर पहली बार में ही 282 सीटें दे दीं। दूसरी बार तो 303 देकर मोदी को चोटी तक पहुंचा दिया। पार्टी वही, चेहरा वही; फिर लोग बिदके क्यों, जो आपको 242 पर ला दिया। वजह की पड़ताल हो रही है।
विपक्षी भी आपकी कमियां गिना-बता रहे हैं। वैसे आप में खामियों से अधिक खूबियां हैं। आपकी नीतियों में भी लोगों का भरोसा नहीं घटा है। हां, एक जगह आपकी असफलता साफ झलकती है। आप विपक्ष की तरह आधारहीन नैरेटिव नहीं गढ़ सकते तो उनके नैरेटिव की कारगर काट तो खोजिए।