ऋषि तिवारी
नोएडा। क्रॉनिक किडनी डिजीज़ (सीकेडी) यानी किडनी के पुराने और गंभीर रोगों से आशय है समय के साथ किडनी फंक्शन में खराबी आना। मौजूदा समय में डायबिटीज़, हाइपरटेंशन और अनहैल्दी लाइफस्टाइल के अलावा बार-बार पैदा होने वाली पथरी की शिकायत जैसी वजहों से इस बीमारी के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। सीकेडी के कारण कई तरह की गंभीर समस्याएं हो सकती हैं, जैसे कि उच्च रक्तचाप (हाइपरटेंशन), एनीमिया (खून की कमी), हड्डियों का कमज़ोर होना, नसों को नुकसान और हृदय व खून की नसों संबंधी बीमारियां। चिंता की बात यह है कि जहां एक ओर सीकेडी के मामले तो बढ़ रहे हैं, वहीं इस रोग के बारे में जानकारी की बहुत कमी है। इसके अलावा, मरीज़ों की देखभाल के लिए उचित हैल्थकेयर सुविधाओं का भी अभाव है। साथ ही, राष्ट्रीय स्तर पर रजिस्ट्री के न होने से भी यह समस्या लगातार बढ़ रही है। इस समस्या का समाधान करने और जागरूकता बढ़ाने के लिए फोर्टिस नोएडा ने एक प्रेस वार्ता का आयोजन किया, ताकि सीकेडी के बढ़ते मामलों की ओर ध्यान दिलाया जा सके और उन मरीज़ों के मामलों को सामने लाया जा सके जो अंतिम चरण की किडनी की बीमारी को हराकर आज स्वस्थ जीवन जी रहे हैं।
हालांकि, डायलिसिस से कुछ हद तक ही खून की सफाई हो पाती है और इसकी वजह से मरीज़ के खानपान पर भी रोक लगा दी गई जिसके चलते वह और भी कमज़ोर हो गईं
और संक्रमण का खतरा भी बढ़ गया। डायलिसिस की वजह से मरीज़ के गर्भवती की संभावनाएं भी कमज़ोर पड़ने लगीं, ऐसे में परिवार शुरू करने के लिए किडनी ट्रांसप्लांट ही एकमात्र उपाय था। इस बारे में मरीज़ के परिवार से चर्चा की गई और उनके पिता ने अपनी किडनी दान की। ट्रांसप्लांट के बाद उनकी तबियत में सुधार हुआ और अब वह सेहतमंद जीवन जी रही हैं।
दूसरे मामले में 38 वर्षीय पुरुष में किडनी संबंधी कुछ सामान्य समस्या हुई जो बाद में बिगड़ने लगा और इसका काफी बुरा असर किडनी पड़ने लगा था। मरीज़ को काफी तेज़ बुखार रहने लगा और उनका कैरेटनाइन 8.2 के स्तर पर पहुंच गया। इससे जुड़ी हर तरह की जांच की गई और सीटी चेस्ट करने पर बड़े लिम्फ नॉड्स का पता चला। इसके बाद उनकी ब्रॉन्कोस्कोपी की गई जिससे ट्यूबरकुलोसिस (टीबी) संक्रमण होने की जानकारी मिली। इसके बाद स्टेरॉयड के साथ-साथ उनका एंटी-ट्यूबरकुलर उपचार शुरू किया गया। टीबी का असर सिर्फ उनके फेफड़ों पर ही नहीं पड़ रहा था, बल्कि इस वजह से उनकी किडनियों में जलन भी हो रही थी और उनकी डायबिटिक किडनी बीमारी बढ़ रही थी। उनकी किडनी ने मूल काम करने बंद कर दिए थे और तीन हफ्तों की अवधि स्थिति खराब होती चली गई। अचानक से सामने आए टीबी संक्रमण की वजह से उनकी किडनी की गंभीर बीमारी (सीकेडी) और भी गंभीर हो गई। फोर्टिस में कम डोज़ वाले स्टेरॉयड के साथ-साथ एंटी-ट्यूबरकुलर थेरेपी की मदद से उनका कैरेटनाइन सामान्य स्तर पर आ गया।
चौथा मामला अमेरिका में पढ़ने वाले 23 वर्षीय युवक का है जिसके पेट में अचानक दर्द हुआ और जांच के बाद पता चला कि उन्हें उच्च रक्तचाप की समस्या है और उनके अल्ट्रासाउंड में सामने आया कि वह सीकेडी स्टेज 5/किडनी फेल की समस्या का भी सामना कर रहे हैं। उन्हें भारत लाया गया और नए सिरे से जांच की गई और उनकी जांच यह पुष्टि हुई कि उन्हें एडवांस स्टेज की, ठीक न होने वाली किडनी की बीमारी है। उन्हें डायलिसिस और किडनी ट्रांसप्लांट की सलाह दी गई, लेकिन उनके परिवार में कोई मैचिंग ब्लड ग्रुप नहीं मिला। उनकी मां का ब्लड ग्रुप एबी पॉज़िटिव था और डुअल एंटीजन की वजह से उन्हें अत्यधिक जोखिम वाला डोनर माना गया। विभिन्न प्रकार के प्लाज़्मा एक्सचेंज के माध्यम से वह किसी दूसरे ब्लड ग्रुप की किडनी लेने के लिए भी तैयार थे। उनका एबीओ इनकंपैटिबल ट्रांसप्लांट किया गया जिसमें मरीज़ को किसी दूसरे ब्लड ग्रुप की किडनी दी जाती है। मां की किडनी लेकर अब वह सेहतमंद और सामान्य जीवन जी रहे हैं।
पांचवा मामला 39 वर्षीय पुरुष का था जिन्हें तेज़ बुखार के कारण शुरुआत में किसी दूसरे अस्पताल में भर्ती किया गया जहां व्यापक तौर पर जांच के बाद यह पाया गया कि उनका कैरेटनाइन ज़्यादा था। आगे की जांच में गले में लिंफ नोड होने का पता चला जिससे कैंसर होने का संदेह हुआ। इसके लिए उनकी बायप्सी की गई। इसके बाद, उन्हें फोर्टिस हॉस्पिटल, नोएडा लाया गया जहां जांच में उनका कैरेटनाइन 7.2 पाया गया। तेज़ी से किडनी के खराब होने की जानकारी मिली और जांच में यह पाया गया कि स्मॉल वैसेल वैस्क्यूलाइटिस – मल्टी सिस्टम डिसऑर्डर है जिसमें किडनी काफी हद तक प्रभावित है। किडनी बायप्सी की गई जिसमें गंभीर स्तर की बीमारी का पता चला जिसका मतलब है कि किडनी 85-90 फीसदी तक खराब हो चुकी थी। कुछ खास दवाओं के साथ उपचार शुरू किया गया और इसके बाद उनकी तबियत में काफी सुधार हुआ और उनके कैरेटनाइन का स्तर घटकर 2.2 हो गया।
एक अन्य मामले में 35 वर्षीय पुरुष को 2-3 हफ्तों तक कान से कुछ पदार्थ निकलने की शिकायत हुई और उनकी योजना सर्जरी कराने की थी। सर्जरी से पहले की जाने वाली जांच के दौरान, नेफ्रोलॉजी से संबंधित परीक्षण में किडनी के ठीक तरह से काम न करने की जानकारी मिली। उनके मूत्र में प्रोटीन और खून निकल रहा था। मूत्र की जांच में एंटीबॉडीज़ होने का पता चला जिसकी वजह से किडनी को नुकसान पहुंच रहा था। तत्काल ही उनकी दवाएं शुरू की गईं और उनकी किडनी की बायप्सी की गई। बायप्सी से क्रेसेंटिक ग्लोमेरूलोनेफराइटिस का पता चला। यह एक प्रकार का किडनी को होने वाला नुकसान है जो एंटीबॉडीज़ की वजह से होता है। इस मामले में नुकसान सी एएनसीए एंटीबॉडीज़ की वजह से पहुंच रहा था। यह नुकसान बहुत तेज़ी से हो रहा था और उपचार न होने पर तीन महीने के भीतर किडनी फेल होने का खतरा काफी ज़्यादा था। फोर्टिस में हर दो हफ्ते में उन्हें आईवी एंडॉक्सन के 6 चरण दिए गए। तीन महीने के बाद यह बीमारी कमज़ोर पड़ने लगी और उनकी तबियत में काफी सुधार देखने को मिलने लगा। इसके अलावा, उनके कान से निकलने वाला पदार्थ और लिवर संबंधी समस्या सर्जरी के बिना ही खत्म हो गई।
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